संपूर्ण भारत में भगवान विष्णु के आठवें अवतार, श्री कृष्ण के जन्मोत्सव का पर्व, कृष्ण जन्माष्टमी, बड़े ही हर्षोल्लास और गहरी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। यह वार्षिक हिंदू त्योहार भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है, जो ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार अगस्त या सितंबर महीने में आता है। इस वर्ष, कृष्ण जन्माष्टमी का यह पावन अवसर शनिवार को मनाया जाएगा, और भक्त इस दिन को उपवास, पूजा-अर्चना और विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ मनाएंगे।
जन्माष्टमी: तिथि और शुभ मुहूर्त
वैदिक पंचांग के अनुसार, इस वर्ष भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि का आरंभ शुक्रवार की रात्रि से होगा और इसका समापन शनिवार की रात्रि में होगा। उदया तिथि की मान्यता के अनुसार, जन्माष्टमी का व्रत एवं पर्व शनिवार को ही मनाया जाएगा।
भगवान कृष्ण का जन्म मध्यरात्रि में हुआ था, इसलिए उनकी मुख्य पूजा निशिता काल में की जाती है। इस वर्ष निशिता पूजा का शुभ मुहूर्त मध्यरात्रि में रहेगा। इस प्रकार, भक्तों को कान्हा के जन्मोत्सव और विधिवत पूजन के लिए पर्याप्त समय प्राप्त होगा।
कृष्ण जन्माष्टमी का आध्यात्मिक महत्व
जन्माष्टमी का पर्व केवल एक जन्मोत्सव नहीं, बल्कि अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है। मान्यता है कि द्वापर युग में जब मथुरा के राजा कंस का अत्याचार चरम पर था, तब भगवान विष्णु ने धर्म की पुनर्स्थापना और मानव मात्र के उद्धार के लिए कृष्ण के रूप में अवतार लिया था। उनका जीवन, उनकी बाल लीलाएं, और भगवद् गीता में दिए गए उनके उपदेश आज भी संपूर्ण मानवता के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। इस दिन व्रत और पूजन करने से संतान प्राप्ति, आयु और समृद्धि की प्राप्ति होती है। यह पर्व हमें जीवन में खुशी, प्रेम और दिव्यता के महत्व को भी समझाता है।
पूजा-विधि: कैसे करें लड्डू गोपाल का स्वागत
जन्माष्टमी के दिन की जाने वाली पूजा विशेष विधि-विधान से संपन्न होती है, जिससे भगवान कृष्ण की कृपा प्राप्त होती है।
व्रत का संकल्प: जन्माष्टमी के दिन प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान-ध्यान करें और भगवान श्री कृष्ण का स्मरण करते हुए व्रत का संकल्प लें।
पूजा स्थल की सज्जा: घर के मंदिर या किसी स्वच्छ स्थान पर एक चौकी पर पीला या लाल वस्त्र बिछाकर भगवान कृष्ण के बाल स्वरूप ‘लड्डू गोपाल’ की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करें।
खीरे से जन्म की रस्म: कई स्थानों पर मध्यरात्रि के शुभ मुहूर्त में खीरे के डंठल को सिक्के से काटकर कान्हा के जन्म की रस्म निभाई जाती है। यह प्रक्रिया ठीक उसी प्रकार है जैसे जन्म के समय शिशु को गर्भनाल से अलग किया जाता है।
अभिषेक: जन्म के बाद, लड्डू गोपाल को पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद, शक्कर) से स्नान कराया जाता है। इसके बाद उन्हें गंगाजल और यमुना जल से स्नान कराकर स्वच्छ वस्त्र पहनाए जाते हैं।
श्रृंगार और भोग: स्नान के बाद कान्हा का सुंदर श्रृंगार किया जाता है, उन्हें नए वस्त्र, आभूषण और मोर पंख अर्पित किए जाते हैं। इसके बाद उन्हें माखन-मिश्री, पंजीरी, फल और अन्य मिष्ठानों का भोग लगाया जाता है।
आरती और मंत्र जाप: अंत में धूप-दीप जलाकर भगवान श्री कृष्ण की आरती की जाती है और “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” जैसे मंत्रों का जाप किया जाता है। पूजा के बाद प्रसाद सभी में वितरित किया जाता है।
व्रत के नियम और पारण का समय
जन्माष्टमी का व्रत अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है और इसके कुछ विशेष नियम हैं:
व्रत के दौरान अन्न और नमक का सेवन वर्जित होता है। भक्त अपनी श्रद्धानुसार निर्जला या फलाहार व्रत रख सकते हैं, जिसमें फल, दूध, दही, और कुट्टू के आटे से बने व्यंजन ग्रहण किए जा सकते हैं।
व्रत रखने वालों को दिन में सोना नहीं चाहिए और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
व्रत का पारण मध्यरात्रि में पूजा के बाद या अगले दिन सूर्योदय के पश्चात किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार, व्रत का पारण अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र के समाप्त होने पर करना श्रेष्ठ माना जाता है। इस वर्ष, जो श्रद्धालु अगले दिन पारण करना चाहते हैं, वे अगले दिन सूर्योदय के बाद प्रसाद ग्रहण कर व्रत खोल सकते हैं।
भारत में जन्माष्टमी के विविध रंग
कृष्ण जन्माष्टमी का उत्सव पूरे भारत में अनूठे और विविध रूपों में मनाया जाता है:
मथुरा-वृंदावन: भगवान कृष्ण की जन्मभूमि मथुरा और लीला स्थली वृंदावन में जन्माष्टमी की छटा देखते ही बनती है। मंदिरों को दुल्हन की तरह सजाया जाता है और लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं। बांके बिहारी मंदिर जैसे प्रमुख मंदिरों में विशेष अभिषेक और मंगला आरती का आयोजन होता है।
महाराष्ट्र की दही-हांडी: महाराष्ट्र में जन्माष्टमी के अगले दिन ‘दही-हांडी’ का उत्सव बड़े पैमाने पर मनाया जाता है। इसमें युवा, जिन्हें ‘गोविंदा’ कहा जाता है, मानव पिरामिड बनाकर ऊंचाई पर लटकी दही और माखन से भरी मटकी को फोड़ते हैं। यह उत्सव भगवान कृष्ण की बाल लीलाओं का प्रतीक है और यह टीमवर्क, एकता और साहस का संदेश देता है।
पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत: असम, मणिपुर और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में जन्माष्टमी का उत्सव नृत्य-नाटिका और भक्ति गायन के साथ मनाया जाता है। यहां के सत्त्रों और मंदिरों में ‘रास लीला’ का मंचन किया जाता है, जो कृष्ण और गोपियों के दिव्य प्रेम को दर्शाता है।
दक्षिण भारत: दक्षिण भारत में इस पर्व को ‘गोकुलाष्टमी’ या ‘श्री कृष्ण जयंती’ के रूप में जाना जाता है। यहां घरों के दरवाजों पर चावल के आटे से छोटे-छोटे पैरों के निशान बनाए जाते हैं, जो घर में नन्हे कान्हा के आगमन का प्रतीक है।
जन्माष्टमी के विशेष पकवान
जन्माष्टमी का पर्व स्वादिष्ट पारंपरिक पकवानों के बिना अधूरा है। भगवान कृष्ण को भोग लगाने के लिए कई तरह के व्यंजन बनाए जाते हैं, जिनमें शामिल हैं:
माखन-मिश्री: यह कान्हा का सबसे प्रिय भोग माना जाता है।
पंजीरी: धनिये या आटे की पंजीरी घी और मेवों के साथ बनाई जाती है और यह एक पारंपरिक प्रसाद है।
पंचामृत: पूजा का एक अभिन्न अंग, पंचामृत दूध, दही, घी, शहद और शक्कर से बनता है।
मिष्ठान: इसके अलावा मखाने की खीर, नारियल के लड्डू, मथुरा के पेड़े और मालपुए जैसे कई मीठे व्यंजन भी इस अवसर पर तैयार किए जाते हैं।
संक्षेप में, कृष्ण जन्माष्टमी का पर्व केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक महापर्व है जो लोगों को भक्ति, प्रेम और आनंद के धागे में पिरोता है। यह भगवान कृष्ण के उन आदर्शों का स्मरण कराता है जो आज भी प्रासंगिक हैं और हमें एक बेहतर जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं।
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